रविवार, 3 दिसंबर 2017

सुनो प्रिये

सुनो प्रिये अब मान भी जाओ
मंथर मंथर बिखर रही मैं
निरंतर तुझमे उतर रही मैं
प्राणों से प्यारे हे स्वामी
प्रेम को मेरे न झुठलाओ
सुनो प्रिये अब मान भी जाओ
कपूर सरीखा संसार तुम्हारा
उसपर लगता भस्म वो न्यारा
हे रूद्र नीलकंठ भोलेनाथ
इस तरह मुझे तुम न आजमाओ
सुनो प्रिये अब मान भी जाओ
मैं चंचल चित की अखंड स्वामिनी
मेरी भक्ति प्रेम में डूबी रागिनी
इस सरगम की स्तूति को 
मुझपर कृपा कर अपनाओ
सुनो प्रिये अब मान भी जाओ
पदमा सहाय

विहंगिनी

वो तुम्हारा आकर्षण ही था
जो खींच लाया था सानिध्य
मुझे तुम्हारे प्रेम की परिधि में
वो तुम तक पहुंचने का हठ
तुम्हारी स्नेह का दिया था
जो तुम्हारी बन्द चक्षुओं में
प्रचंड अग्नि बन देदीप्यमान था
अभाषित हो के प्रेम को परिभाषित
तुमने ही किया था
मौन साधना जिसके साक्षी 
मैं तुम और सम्पूर्ण प्रकृति है
उसके प्रारब्ध को प्रतिबद्ध भी
तुमने ही तो किया था
जो परा से प्राप्त था हुआ
वो परे चला गया
शेष तो सिर्फ मैं रही
तुम्हारे अन्तस् में खोई हुई सी
पदमा सहाय