रविवार, 3 दिसंबर 2017

सुनो प्रिये

सुनो प्रिये अब मान भी जाओ
मंथर मंथर बिखर रही मैं
निरंतर तुझमे उतर रही मैं
प्राणों से प्यारे हे स्वामी
प्रेम को मेरे न झुठलाओ
सुनो प्रिये अब मान भी जाओ
कपूर सरीखा संसार तुम्हारा
उसपर लगता भस्म वो न्यारा
हे रूद्र नीलकंठ भोलेनाथ
इस तरह मुझे तुम न आजमाओ
सुनो प्रिये अब मान भी जाओ
मैं चंचल चित की अखंड स्वामिनी
मेरी भक्ति प्रेम में डूबी रागिनी
इस सरगम की स्तूति को 
मुझपर कृपा कर अपनाओ
सुनो प्रिये अब मान भी जाओ
पदमा सहाय

विहंगिनी

वो तुम्हारा आकर्षण ही था
जो खींच लाया था सानिध्य
मुझे तुम्हारे प्रेम की परिधि में
वो तुम तक पहुंचने का हठ
तुम्हारी स्नेह का दिया था
जो तुम्हारी बन्द चक्षुओं में
प्रचंड अग्नि बन देदीप्यमान था
अभाषित हो के प्रेम को परिभाषित
तुमने ही किया था
मौन साधना जिसके साक्षी 
मैं तुम और सम्पूर्ण प्रकृति है
उसके प्रारब्ध को प्रतिबद्ध भी
तुमने ही तो किया था
जो परा से प्राप्त था हुआ
वो परे चला गया
शेष तो सिर्फ मैं रही
तुम्हारे अन्तस् में खोई हुई सी
पदमा सहाय

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

लम्हे

क्यों लगता है ऐसे
की सदिया सिमट गई हों
एक लम्हे में जैसे
हाँ बात अलग है कि
वो लम्हा था मेरा पूर्ण विराम
एक अधूरे ख्वाब का नाम
जिंदगी रुक गई थी मेरी
जो आज शुरू हुई फिर से
फिर क्यों लगता है ऐसे
की सदियां सिमट गई हों
एक लम्हे में जैसे
आज कल या कल और आज
में कितना था फर्क नही है याद
एक लम्हे में बदली दुनियां
इसका था मुझको अवसाद
फिर क्यों लगता है ऐसे
कि सदियां सिमट गई हों
एक लम्हे में जैसे।

राह

जीवन नदी की तरह है । अपने रास्ते खुद तलाशती है और हम ताउम्र इस भ्रम में जीते हैं कि हम अपनी जिंदगी जी रहे हैं। हमारी सारी कोशिशें विधाता के बनाये नियमो और प्रकृति के विपरीत जा कर कुछ कर गुजरने की होती है। जबकि जीवन तो नदी है, अपने रास्ते स्वयं तय करती है।

मौन

क्यों लगता है कि
इस जहाँ में अपना कौन है
हर तरफ  हलचल है फिर भी
दिल की दुनिया मौन है
एक आवाज़ जो दिल से आती
कहकर क्यों वो चुप हो जाती
सुनकर भी मैं समझ न पाती
क्या कुछ है वो कहना चाहती
अपनी हाथो की रेखाओं को
कभी नहीं पढ़ पाई मैं
कभी न जान पाई की
ये सपना नही सच्चाई है।

सोमवार, 20 जुलाई 2015

शून्य

वह शून्य भी तो सत्य है
 जो कुछ बयां नहीं करता
वह चांद भी तो सुंदर है
जिसे कोई छू नहीं सकता
जिंदगी भी वैसी ही
 एक अनोखी शून्य है
 आधी अधूरी कथा होकर
भी वो खुद में पूर्ण है
कुछ न कहके शून्य हमसे
सबकुछ कहता चुप ही रहके
अपनी पूर्णता का  प्रमाण
दे जाता वह मौन बनके
शून्य पृथ्वी शून्य आकाश
शून्य जीवन का तपास
शून्य ही सम्पूर्ण है
बाकि सब बस है आभास

ख्वाहिश

एक थी तमन्ना मेरे दिल को
 जिसे न पूरी मैं कर पाई
आज अचानक ही मुझको क्यों 
भूली बिसरी याद आई
जितना सच आज है मेरा
उतनी है इसमें सच्चाई
क्या नाम मैं दें दूं इसको
निर्णय नहीं ये कर पाई
मैं ही इसकी रचयीता 
मैं हूं इसकी अभिनेत्री
ये उतनी पावन पवित्र है 
जितनी गंगा व गंगोत्री
मन में उठती आंधी तूफान 
खुद ही थम गयी जैसे 
जाने ये झंझावात मेरे 
अंतरमन मे बसी कैसे